Sunday, November 28, 2010

कुर्बतों के फासिले

                 आज कल खुद्कलामी का वक़्त ढूंढे भी नहीं मिलता. कभी खुद्कलामी में यादों की ज़्म्बील खोलें तो बहुत सी पुरकशिश अधूरी ख्वाहिशें हालात की गर्द में पाएमाल मिलती हैं. क्यूंकि पूरी हुई ख्वाहिशों और ख्वाबों की कशिश तो शुक्राने की रस्म के बाद ही खत्म हो जाती है. कशिश ही नासहल रास्तों को इख्तियार करने की हिम्मत देती है. अर्णव आज फिर पगडण्डी के सहल रास्ते को छोड़ कर एक नासहल रास्ते से पहाड़ी के ऊपर चढ़ता जा रहा था. ये रास्ता कभी सहल न था लेकिन  डूबते सूरज को देखने की कशिश हर बार इस नासहल रास्ते पर भारी  पड़ती.  वो एक इबाद्तगुजार की तरह अपनी इबादतगाह की तरफ बावक्त आगे बढ़ता जा रहा था. अंजलि आज भी वहां नहीं थी. अंजलि रोज़ ही वहां नहीं होती थी लेकिन यह तस्सवुर उसकी आदत में शुमार था. पहाड़ी पर बैठ कर डूबते सूरज को देखते हुए अपने ख्यालों कि चेहरा नवीसी उसके मामूल का  एक हिस्सा थी.पहाड़ी से दूर वादी में एक पीला बल्ब टिमटिमाता हुआ सूरज को शिकस्त देने को कोशिश करता .जब सूरज डूब कर सारा मंज़र तारीक कर देता तो  वो पीला बल्ब उसे अंजलि से मिलने का एक वसीला सा लगता. जब पहाडिया अपनी गाय अन्दर करता तो उसके भी लौटने का वक़्त हो जाता, जहाँ लोगों कि तंज़ आमेज़ नज़रें उसका इंतज़ार कर रहीं होतीं.  खुद्सुपुर्दगी उसे कभी अच्छी नहीं लगी . अक्सर एक सवाल उसके ज़हन में उभरता कि वो आज़ाद होते हुए भी कई चीज़ों से कितना बंधा हुआ है.....  
             
                अंजलि अर्णव का वो ख़्वाब थी  जो उसकी ज़हनी शख्सियत को  पुख्तगी बख्श रही थी.वो अंजलि से जब भी मिलता तो दोनों एक दूसरे को अपने रिश्ते की  रूहानियत समझाने  लगते. किस तरह एक न नज़र आने वाला एहसास दोनों को बांधे है. दोनों एक ही बात पे हँसते हैं, एक ही बात पे रोते हैं, एक ही वक़्त में एक बात सोचते हैं और इतने फासले पर होने पर भी सुन लेते हैं एक दूसरे को. सब्र आज़मां हालात और कम वसीले उन्हें जिस्मानी तौर पर जितना दूर किये जा रहे थे, ज़हनी तौर पर वो उतने ही करीब आ रहे थे. कभी कभी अंजलि अर्णव को दूर वादी में जलते उस पीले बल्ब कि तरह लगती जो हर शाम सूरज को शिकस्त देने की कोशिश में होता और दुनिया को उस वक़्त रौशनी बख्शता जब कायनात में हर तरफ तारीकी ही तारी होती.

                  "आज तुम मुझे बहुत दिन बाद मिल रही हो" अर्णव ने अंजलि से शिकायती लहजे में कहा. अंजलि ने अर्णव का हाथ अपने हाथ  में लेकर उसे अपने एहसास कि गर्मी से वाबस्ता कराया. आँखों से ढलकते अश्क  मोतियों कि शक्ल में  दोनों के आरिज़ ओ चश्म को ताबानी बख्श रहे थे. पानी यूँ तो बुनियाद के लिए अच्छा नहीं होता, इस के बरअक्स आँखों से ढलते अश्क उनकी ज़हनी कुर्बत कीबुनियाद को पुख्ता कर रहे थे. अर्णव अक्सर तन्हाई में जब भी अंजलि को अपने जज़्बात और ख़याल आराई बयाँ करता तो अर्णव का मासूम अंदाज़ अंजलि कि नज़रों में उसकी इज्ज़त अफज़ाई करता .आज अर्णव से डूबते हुए सूरज और टिमटिमाते पीले बल्ब  का मंज़र सुनते हुए  अंजलि को यह कुर्बतों के फासिले नाकाबिले बर्दाश्त हो रहे थे.  हकीक़त में अर्णव से दूर होना उसे गुनाह लगने लगा. अंजलि ने अर्णव को खींच कर अपने आगोश में लिया . अर्णव को अंजलि कीआँखों में वादी का वो पीला बल्ब पुररोशन दिखाई देने लगा.


                 वक़्त कि पाबन्दी आज फिर उस इबादात् गुज़ार को उसकी इबादत गाह की तरफ उसी नासहल रास्ते से ले कर जा रही थी. आज न  जाने क्यूँ  अर्णव को यूँ लग रहा था जैसे उसकी एह्सासी मिलकियत से कोई उससे पहले गुज़र गया है. दबी हुई मिटटी के नक्श  और पायमाल नख्ल उसके ख्याल की गवाही दे रहे थे. तमाम मुश्किलात के बाद जब अर्णव अपनी ख़ाम ख़याली में पहाड़ी पर पहुंचा तो अंजलि सामने डूबते हुए सूरज को देख रही थी. डूबते हुए सूरज कि  सिन्दूरी रंगत  में उसे अंजलि का मासूम चेहरा  पुरजमाल नज़र आ रहा था . अर्णव  अपनी ख़ाम ख़याली में अंजलि के पहलु में बैठ गया. जब  वादी का पीला बल्ब सूरज को शिकस्त देने की एक कामयाब कोशिश में था  तब अंजलि ने अर्णव का हाथ पकड़ कर उसके ख्यालों के सिलसिले को तोडा और उसे लेकर उस पीले बल्ब की ज़ानिब चलने लगी और अर्णव एक मासूम बच्चे की तरह अंजलि की कदम बोसी करने लगा............  
          
              

6 comments:

  1. तन्हाई के आलम में
    माज़ी की यादों में मुब्तिला होकर
    न-सहल रास्तों से शनासा होने का मामूल ही
    दरअस्ल ख़ुदकलाम होने को तस्दीक़ कर रहा है...
    कहानी पढ़ते वक़्त,
    मंज़र का रूनुमा हो पाना
    कहानी की ख़ासियत बन कर उभरा है ...
    ये एहसास भी हुआ कि
    अंजलि की यादों की चमक अर्णव की आँखों में
    हमेशा उस जलते हुए पीले बल्ब को रौशन रक्खे हुए है
    जो उनके अहद के सूरज के ग़ुरूब होने के बाद की तारीकी को
    उजाले में बदले हुए है ......

    मुबारकबाद कुबूल फरमाएं हुज़ूर !!

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  2. रचना अच्छी है, भावप्रवण है लेकिन उर्दू शब्दों की भरमार है. आज कल की युवा पीढ़ी को उर्दू भाषा का कम ही ज्ञान है. बेहतर हो अगर आप हिंदी के सशक्त शब्दों का ज्यादा प्रयोग करें..रचना का अंत मन को छू गया "अंजलि ने अर्णव का हाथ पकड़ कर उसके ख्यालों के सिलसिले को तोडा और उसे लेकर उस पीले बल्ब की ज़ानिब चलने लगी और अर्णव एक मासूम बच्चे की तरह अंजलि की कदम बोसी करने लगा"

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  3. कहानी बहुत अच्छी लगी शैली, शिल्प कमाल का है। बधाई।

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  4. The improvement in his prose is spectacular, his transition into fiction rather startles. Good imagination and imagery.The images of the sunset and the pale-lamp are eloquent. Congratulations, Varun.

    Now,the need of the hour is discipline. The excessive Urdu dominates the feel, ...one cannot help thinking as if the writer has searched for a plot in order to exhibit his diction. Then,... misspells,...a couple of dozens is a pretty big number for a short text !

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  5. A very High quality creation, which has tried to explore some very deep desires. A very unique style to present the feelings which are hidden in each and every one of us. Keep travelling....well done.

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