कौन कहता है लफ्ज़ अपाहिज होते हैं
लफ्ज़ तो चारागर हैं
लफ्ज़ ही तो ले जाते हैं मुझे
उस सुनसान पहाड़ी पर जहाँ
ढलते हुए सूरज की सिंदूरी रंगत
बढाने लगती है दिल की तारीकी
और दूर एक पीला बल्ब जलता हुआ
एक वसीला सा मालूम पड़ता है
लफ़्ज़ों के दर्द को महसूस कर
आ जाती हो तुम भी
बैठ जाती हो मेरे पहलु में
हाएल हो जाती है
एक जद्दोजहद
मेरी ख़ाम खयाली और तुम्हारी जिद में
जब ले चलती हो तुम मुझे
उस पीले बल्ब की जानिब
शब्दों को समझने में प्रयासरत है साहित्यजगत ,सुंदर रचना के लिए साधुवाद
ReplyDeleteकौन कहता है लफ़्ज़ों के पाँव नहीं होते
ReplyDeleteकौन कहता है लफ्ज़ अपाहिज होते हैं
लफ्ज़ तो कीमियागर हैं, लफ्ज़ चारागर हैं
बहुत सुन्दर प्रस्तुति