Saturday, November 27, 2010

फासले

कौन कहता है लफ़्ज़ों के पाँव नहीं होते
कौन कहता है  लफ्ज़ अपाहिज होते हैं
लफ्ज़ तो चारागर हैं
लफ्ज़ ही तो ले जाते हैं मुझे
उस सुनसान पहाड़ी पर जहाँ 
 ढलते हुए सूरज की सिंदूरी रंगत
बढाने लगती है दिल की तारीकी 
और दूर एक पीला बल्ब जलता हुआ
एक वसीला सा मालूम पड़ता है
 लफ़्ज़ों के दर्द को महसूस कर
आ जाती हो तुम भी 
बैठ जाती हो मेरे पहलु में
 हाएल हो जाती है
एक जद्दोजहद
मेरी ख़ाम खयाली और तुम्हारी जिद में
जब ले चलती हो तुम मुझे

 उस पीले बल्ब की जानिब

2 comments:

  1. शब्दों को समझने में प्रयासरत है साहित्यजगत ,सुंदर रचना के लिए साधुवाद

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  2. कौन कहता है लफ़्ज़ों के पाँव नहीं होते
    कौन कहता है लफ्ज़ अपाहिज होते हैं
    लफ्ज़ तो कीमियागर हैं, लफ्ज़ चारागर हैं

    बहुत सुन्दर प्रस्तुति

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