Tuesday, November 2, 2010

सिर्फ तुम्हारे लिए

अलफ़ाज़ शायद खफा हैं मुझसे
परीशां तो मैं भी हूँ
टूटे हुए कलम की 
पैनी नोक से
शिकायतें वाजिब हैं
तुम्हारे लब ओ गेसू कीं 
तुम्हारे आरिज़ ओ रुखसार कीं 
गिला तो मुझसे मेरा इश्क भी करता है
मुन्तजिर हैं सब
उन चंद लफ़्ज़ों के जिनमें
जी जाते थे हम  दोनों 
एक पल में
सदियों की ज़िन्दगी

दब गयी है संजीदगी  अभी  चाहे 
कहकहों के झूठे दिलासों में

लेकिन

गज़ल कभी मरती नही
नज़्म कभी फौत नहीं होती 



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