परीशां तो मैं भी हूँ
टूटे हुए कलम की
पैनी नोक से
शिकायतें वाजिब हैं
तुम्हारे लब ओ गेसू कीं
तुम्हारे आरिज़ ओ रुखसार कीं
गिला तो मुझसे मेरा इश्क भी करता है
मुन्तजिर हैं सब
उन चंद लफ़्ज़ों के जिनमें
जी जाते थे हम दोनों
एक पल में
सदियों की ज़िन्दगी
दब गयी है संजीदगी अभी चाहे
कहकहों के झूठे दिलासों में
लेकिन
गज़ल कभी मरती नही
नज़्म कभी फौत नहीं होती
बहुत खूबसूरत अभिव्यक्ति ..
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