Friday, July 9, 2010

रावण............. एक भ्रमित नायक

रावण ..................... हिन्दू धर्म के अनुसार एक  ज़ालिम और शदीद किरदार. रावण........................ हर हिन्दू के लिए शत्रुपक्ष . ऐसे ही कई विशेषण रावण के लिए लिखे जा सकते हैं.   रावण की हर अच्छाई से हमें दूर रखा गया . यह सच है की नायक का नायकत्व दिखाने के लिए खलनायकत्व भी ज़रूरी है लेकिन अगर कुछ मामलों में खलनायक नायक से आगे निकल जाए तो लेखकों की लेखनी कहानी की दिशा मोड़ देती है . रावण......... एक ऐसा शख्स जो आज तक खलनायकी ढो रहा है. रावण के बारे में जानने  के लिए हमें ज़रा तफसील में जाना होगा. देव असुर संग्राम में रावण के नाना सुमाली को अपनी लंका छोड़ कर अज्ञातवास में जाना पड़ा. सुमाली युद्ध और राजनीती विद्या में पारंगत था. जब उसे यह एहसास हुआ की वह  अपना खोया हुआ राज्य और ऐश्वर्य अपनी भुजाओं के बल पर वापिस हासिल नहीं कर पायेगा तो उसने अपनी बेटी कैकसी को उस समय के आर्य ऋषि विश्र्वा, जो मह्रिषी पुलस्त्य के पुत्र थे, के पास पुत्र प्राप्ति के लिए भेजा. ऋषि विश्र्वा ने कैकसी के यौवन पर मुग्ध हो कर इस बात की स्वीकृति दी. समय पाकर ऋषि विश्र्वा से कैकसी को तीन पुत्रों और एक पुत्री की प्राप्ति हुई जिसे संसार रावण, कुम्भकर्ण, विभीषण और शूर्पनखा के नाम से जानता है. इसी मध्य देवों ने  ऋषि विश्र्वा के पहले पुत्र कुबेर यानी रावण के सौतेले भाई को लंका का राजा बना दिया और उसे देवों के कोषाध्यक्ष और यक्षों का प्रधान बना दिया. जब जब कुबेर अपने पुष्पक विमान पर अपने पिता ऋषि विश्र्वा  से मिलने आता तब तब सुमाली के सीने पर सांप लौटते और वह रावण को इस बात के लिए उकसाता की अगर कुबेर न होता तो यह सब ऐश्वर्य रावण का होता. रावण की रगों में आर्य, ब्राह्मण  और दैत्यों का रक्त बह रहा था इस लिए अपने नाना और मामाओं को संगति में जहाँ उसने युद्ध कौशल सीखा वहीँ अपने ब्राह्मण पिता से वेदों का ज्ञान अंगीकार किया.रावण  ने  समय  पाकर चार वेदों  और छे उपनिषदों का गहन अध्धयन किया .रावण के दस सिर इन्ही चार वेदों और ६ उपनिषदों का प्रतिनिधित्व करते हैं. आचर्य चतुरसेन के अनुसार रावण ने कुबेर की 'यक्ष संस्कृति' के विपरीत 'रक्ष संकृति' की स्थापना की. यक्ष संस्कृति का नारा था 'वयं यक्षामः' जिसका अर्थ था 'हम भोगते हैं'. रावण की 'रक्ष संस्कृति' का नारा था 'वयं रक्षामः ' जिसका अर्थ था 'हम रक्षा करते हैं. इन दो संस्कृतियो  में में अंतर यह था के यक्ष कुबेर देवों की और से सबसे कर संग्रह करते और उसे अपने और देवों के भोग विलास पर खर्च करते पर रावण ने रक्ष संस्कृति में यह कहा की जो रक्ष संस्कृति स्वीकारेगा वो कर नहीं देगा और उसकी  रक्षा रावण द्वारा की जाएगी. अगर इस बात को तह में जाए बिना भी विचार जाये तो यह सीधे सीधे कुबेर के रसूख को खत्म करने और अपना वर्चस्व बढ़ने में रावण का पहला क़दम था. शायद  यह आज की 'security agencies' का आदिम या प्राचीन रूप कहा जा सकता है. रावण ने अपनी इस 'रक्ष संस्कृति' को साम , दाम , दंड  और भेद आदि नीतियों से सप्तद्वीप में फैलाया और कुबेर को लंका से निकाल कर उसका पुष्पक विमान छीन लिया. कुबेर ने अपने पिता और भगवान रूद्र की आज्ञा से कैलाश पर्वत के समीप अलकापुरी बसाई और वहां निवास किया.  इसी रक्ष संस्कृति के अनुगामी राक्षस कहलाए.
                  पौराणिक आर्यों  में खंड नीति लोकप्रिय थी. छोटी छोटी बातों पर आर्य अपने ही लोगों को बहिष्कृत करके दक्षिण अरण्य में भेज देते थे, यह बात रावण के लिए असहनीय थी. रावण सभी आर्यों , अनार्यों, किन्नरों , गन्धर्वो , नागों और मानवों को एक धर्म , एक संस्कृति यानि रक्ष संस्कृति में लाना चाहता था. इसी बात पर उसका देवो और दूसरी जातिओं से वैचारिक मतभेद था. अपनी रक्ष संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए रावण ने गहन तपस्या करके ब्रह्मा से अमरत्व ला वरदान लिया. इस के बाद रावण ने यज्ञ, तपस्या और अध्धयन से कई तरह की सिद्धियाँ और शक्तियां प्राप्त की जिसमे मल्ल युद्ध, इंद्रजाल , छद्म वेश धारण करना, अदृश्य होना आदि प्रमुख हैं.  रावण  एक उत्कृष्ट  वीणा  और मृदंग वादक था  और उसके ध्वज  पर वीणा की एक तस्वीर थी. रावण संस्कृत का महान ज्ञाता था. एक बार उसने भगवान रूद्र से लंका चल कर रहने के लिए कहा. रूद्र के मना करने पर उसने अपनी भुजाओं में कैलाश पर्वत को ही उठा लिया. जब भगवान रूद्र ने  अपने पैर की छोटी उंगली से कैलाश को दबाया तो रावण चीत्कार कर भयानक रूदन करने लगा जिसके फलस्वरूप तीनो लोकों के प्राणी भी रूदन करने लगे  और उस दिन से दशग्रीव/ दशानन  रावण के नाम से प्रसिद्ध हुआ. रावण के नाम का शाब्दिक अर्थ है..............जो दूसरो जो रूदन के लिए विवश करे. कैलाश से दबने के बाद रूद्र को प्रसन्न करने के लिए रावण ने उसी समय 'शिव तांडव स्तोत्र' की रचना की. रावण अस्त्रों शस्त्रों  का भी महान ज्ञाता था. रामायण में रावण की और से ब्रह्मास्त्र , नाग पाश, पशुपति अस्त्र, शिव त्रिशूल और चंदर हास खड़ग प्रयोग किये जाने का विवरण मिलता है. लंका पर स्थापित होने के बाद  रावण अपनी क्षमताओं से प्रेरणा लेकर विश्व विजय अभियान पर निकला और जल्द ही वह दैत्यों का सर्वोच अधिपति बन गया. कई अनुष्ठान और बलिदानों के बाद रावण मानवो का भी सम्राट बना  और त्रिलोकी में उसकी पूजा होने लगी. रामायण काल से भी कोई सौ साल पहले  ही, रावण मनुष्यों और देवो पर हावी हों गया था .रावण द्वारा रचित उत्कृष्ट रचना 'रावण संहिता ' है जिसमे रावण ने आयुर्वेद , राजनीती  और ज्योतिष विद्या के सिद्धांत प्रतिपादित किये. रावण संहिता आज भी वैदिक ज्योतिष में एक महत्वपूर्ण ग्रन्थ माना  जाता है.
                सीता हरण के साथ ही रावण का पराभव शुरू हुआ. एक मत के अनुसार रावण द्वारा सीता हरण उचित था क्यूंकि राम  और लक्ष्मण द्वारा स्त्री से स्त्रिओचित व्यवहार न करके हिंसा की गयी थी और अपनी भगिनी के अपमान के विरोधस्वरूप यह कार्य किया गया क्यूंकि राम जहां अपने बनवास के समय ठहरे थे वह रावण का ही एक उपनिवेश था जिसकी अधिष्ठात्री सूर्पनखा थी. सभी को ज्ञात है की रावण ने राम रावण संग्राम में पूरे शोर्य का प्रदर्शन किया और एक वीर की भांति वीरगति प्राप्त की. रावण की मृत्यु के साथ ही रक्ष संस्कृति ख़त्म हों गयी क्यूंकि युद्ध में लंका के सारे वीर मृत्यु प्राप्त कर चुके थे. रावण की मृत्यु के बाद , विभीषण ने आर्य धर्म स्वीकार किया  और लंका के सिंहासन पर विराजमान हुए. पर विभीषण लंका में कटु दृष्टि से देखे जाते थे और कुल्द्रोही होने का कलंक उनके माथे पर था. वो इतने बड़े राज्य को सम्भाल नहीं पाए और लंका का सप्तद्वीप का राज्य केवल लंका तक ही सीमित हों कर रह गया. इसके बाद राम इस पृथ्वी के सम्राट घोषित हुए. सारी पृथ्वी के लोगों को वर्ण वयवस्था बना कर आर्य धर्म में दीक्षित किया गया और रावण के स्थान पर सर्वत्र राम   की पूजा होने लगी. 
              रामायण में रावण के चरित्र पर सीता हरण के अतिरिक्त कोई धब्बा दिखाई नहीं देता. सीता हरण उचित था या अनुचित हम इस बहस में नहीं पड़ेंगे . पर रावण का चरित्र अपने आप में एक सम्पूर्ण व्यक्तित्व है . रावण सब कलाओं में पारंगत  और ज्ञानी था. जैन मत के अनुसार हर समय चक्र  में बलदेव , वासुदेव (नारायणा) और  प्रतिवसुदेव  (विरोधी या विरोधी वासुदेव नायक) के नौ समूह होते हैं.. राम, लक्ष्मण और रावण आठवें बलदेव , वासुदेव, और प्रतिवसुदेव   हैं. रामायण के जैन महाकाव्य में,  अंततः लक्ष्मण  रावण को  मारता है . अंत में, राम, जो एक ईमानदार जीवन जीते हैं,   राज्य त्याग के बाद , एक जैन साधु बन जाते हैं और मोक्ष पा लेते   है.. दूसरी ओर, लक्ष्मण और रावण नरक में जाते हैं. हालांकि यह भविष्यवाणी भी  है कि अंततः वे दोनों ईमानदार व्यक्ति के रूप में पुनर्जन्म लेंगे  और उनके भविष्य के जन्म में मुक्ति प्राप्त हो जाएंगी. जैन ग्रंथों के अनुसार, रावण का भविष्य में जैन धर्म के  तीर्थंकर के रूप में जन्म होगा. एक अन्य जैन काव्य , पद्मपुराण  के अनुसार, रावण गैर आर्यन जाती का वंशज  है जो की  विद्याधर के नाम से जानी जाती थी और जो  बेहद सुसंस्कृत और विद्वान लोग थे और जैन धर्म और अहिंसा  अनुयायी थे . वे जानवरों के वैदिक यज्ञ में बलि देने  का विरोध किया करते  और अक्सर इस तरह के व्यवहार को रोकने की कोशिश भी करते थे . इसलिए, वे वैदिक अनुयायियो द्वारा राक्षस कहलाए गए. सब लेखकों ने रावण को अपने अपने धर्म के अनुसार चित्रित किया पर एक बात पर सब सहमत हैं और वह है रावण की विद्वता . रामायण में भी भगवान राम किसी न किसी रूप में रावण की विद्वता के कायल हैं. राम ने ही लक्षमण को रावण से नीति की शिक्षा लेने की लिए भेजा. तो फिर किस कारण रावण राक्षसत्व ढो रहा है? क्यूँ हमारे इतिहासकारों ने रावण के गुणों को आम आदमी पर ज़ाहिर नहीं होने दिया ? सामान्यतः  कहा जाता है की पौराणिक राजा लेखकों से अपनी इच्छानुसार  इतिहास लिखवाते थे. अगर यह सच है तो हों सकता है शायद इसी कारण सुग्रीव , अंगद  और हनुमान जी भी आज तक वानरत्व ढो रहे हों .
(कुछ तथ्य इन्टरनेट और आचार्य चतुरसेन के उपन्यास 'वयं रक्षामः' के साभार एवं प्रेरित)

Tuesday, July 6, 2010

क्या विश्व को भारत की देन जीरो हैं?

रोज़ रात को सोते वक़्त संगीत सुनने की आदत है. कल रात को भी कुछ ऐसा ही था. गीतों के चलते चलते अचानक एक डायलोग कान में पड़ा "India's contribution is zero zero and zero". इस के बाद गीत शुरू हुआ ' जब जीरो दिया मेरे भारत ने.................". मन तब से अशांत है क्यूंकि इस गीत में भारत और भारतीयता की जो प्रशंसा की गयी है उस से मन गोरवान्वित तो होता ही है पर आज के हालात देख कर रुदन भी करता है. मेरे भारत देश महान के कुछ तथ्यों की तरफ मैं अपने भाइयों का ध्यान ले जाना चाहता हूँ .........
१. भारत ने संख्या प्रणाली का आविष्कार किया. शून्य आर्यभट्ट द्वारा आविष्कार किया गया था. स्थान मूल्य प्रणाली, दशमलव प्रणाली भारत में 100 ई.पू. में विकसित हुई . आर्यभट्ट ने  499 ई. में  पृथ्वी की गोलाकार आकृति, आकार, व्यास, और पृथ्वी की घूर्णन गति  का सही आकलन किया.
२. विश्व का पहला विश्वविद्यालय तक्षशिला में 700 ईसा पूर्व में स्थापित किया गया था. विश्व भर के छात्रो ने  60 से अधिक विषयों का अध्ययन किया. नालंदा विश्वविद्यालय ४थी  शताब्दी में बनाया गया जो की शिक्षा के क्षेत्र में प्राचीन भारत की महानतम उपलब्धियों में से एक था. संस्कृत सभी उच्च भाषाओं की जननी माना जाता है. संस्कृत सबसे सटीक है, और कंप्यूटर सॉफ्टवेयर के लिए इसलिए उपयुक्त भाषा - फोर्ब्स पत्रिका में एक रिपोर्ट, जुलाई 1987.
३. भास्कर आचार्य (२) ने अपनी किताब "सिद्धांत शिरोमणि' में पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षण का सिद्धांत सर आइजैक न्यूटन से ४०० वर्ष पहले दे दिया था. भास्कर आचार्य (२) ने अपनी किताब "सिद्धांत शिरोमणि' में यह भी बताया के पृथ्वी सूर्य का एक  चक्कर ३६५ दिनों में पूरा करती है.
४. नेविगेशन की कला में सिंध नदी में 6000 साल पहले पैदा हुई थी.शब्द नेवीगेशन' शब्द संस्कृत NAVGATIH से व्युत्पन्न है.
५. सकारात्मक और नकारात्मक संख्या और उनकी गणना  को ब्रह्मगुप्त द्वारा पहले अपनी पुस्तक ब्रह्मगुप्त  सिद्धांत में समझाया गया.
६. सूर्य सिद्धांत, प्राचीन भारत के खगोल विज्ञान पर एक पाठ्यपुस्तक, 1000 ई.पू. में संकलित, के अनुसार  पृथ्वी का व्यास 7840 मील जो की  7,926.7 मील की आधुनिक मापन की तुलना में सन्निकट है . पृथ्वी और चंद्रमा के बीच की दूरी 253.000 मील बताई  गयी जो  252710 मील की आधुनिक मापन की तुलना में सन्निकट है.
७. "pi का मूल्य  पहली बार  बौधयाना  द्वारा की गणना है, और उन्होंने ने उस अवधारणा को विकसित किया जो  बाद में  Pythagorean प्रमेय के रूप में जाना गया . वह यूरोपीय गणितज्ञों के पहले 6 वीं शताब्दी में इसअवधारणा की खोज की. इस को '1999 में मान्य' ब्रिटिश विद्वानों द्वारा किया गया.
८. जब कई संस्कृतियों के अनुयायी  5000 साल पहले  घुमंतू वनवासी थे, भारतीयओं ने  सिंधु घाटी की सभ्यता में हड़प्पा संस्कृति की स्थापना की
९. महर्षि सुश्रुत सर्जरी के पिता है. 2600 साल पहले उन्होंने अपने समय के स्वास्थ्य वैज्ञानिकों के साथ प्रसव, मोतियाबिंद, कृत्रिम अंगों को लगाना , अंग भंग होने,मूत्राशय के  पत्थरों और प्लास्टिक सर्जरी जैसी कई तरह  की जटिल शल्य चिकित्सा के सिद्धांत प्रतिपादित किये . असंवेदनता का उपयोग अच्छी तरह से प्राचीन भारत में जाना जाता था. 125 सर्जिकल उपकरणों का  इस्तेमाल किया गया. शरीर रचना विज्ञान, शरीर विज्ञान, aetiology, भ्रूण विज्ञान, पाचन, चयापचय, आनुवांशिकी और प्रतिरक्षा की विस्तृत जानकारी भी कई ग्रंथों में पायी  जाती  है.
१०. दक्षिण भारत के लोग  आधुनिक मार्शल कला के मूल के संरक्षक, योग से प्रभावित और युद्ध के प्राचीन भारतीय विज्ञान (धनुर -वेद) और चिकित्सा (आयुर्वेदिक-) वेद से जुड़े हैं. कुंग फू का मूल एक बोधिधर्म नाम के बोद्ध भिक्षु के द्वारा दिया गया , जो500 ई  के आसपास भारत से चीन गए. 
११. गोविन्दस्वामिन ने  न्यूटन से 1800 सालपहले  न्यूटन गॉस क्षेपकः सूत्र की खोज की.
१२. वतेस्वराचार्य  ने  न्यूटन से1000 साल पहले   न्यूटन गॉस पिछड़ा क्षेपकः सूत्र की खोज की.
१३.चरक संहिता (3rd to 2nd centuryBC ) आंतरिक दवा पर एक आयुर्वेदिक पाठ है. यह आयुर्वेद के तीन प्राचीन ग्रंथों में  सबसे पुराना माना जाता है.
१४. सिंचाई तकनीक ४५०० BC में सिन्धु  घाटी की सभ्यता में विकसित हुई.
१५. वेदांग ज्योतिष, जो १२०० BC में लिखा गया , में ग्रहण, लीप वर्ष, खगोलीय रशिओं, चन्द्र/सूर्य ग्रहण का विस्तार से वर्णन किया गया. पांचवी शताब्दी में लिखित पञ्च सिद्धान्तिका में ग्रहण को रेखा चित्रों से दर्शाया गया है जो की पश्चिमी विद्वानों द्वारा केवल एक हज़ार साल पहले किया गया.
१६.  कश्यप  (६ BC )   ने  पहले प्रतिपादित किया गया था कि परमाणु  (Atom) पदार्थ की एक अक्षय कण है . सामग्री के अनुसार ब्रह्मांड  कण  से बना है. जब पदार्थ  विभाजित होता है तब हम एक ऐसी स्थिति में पहुँच जाते हैं जहाँ विभाजन संभव नहीं है. और वह स्थिति परमाणु की होती है. 
१७.  आधुनिक भवन निर्माण पुरातन भारतीय वास्तु शास्त्र से प्रेरित है.
१८. संगीत के सातों स्वर वैदिक काल में पूर्ण रूप से मान्य किये गए. वेद, उपनिषद, श्रीमद भागवत, पुराणों और महाकाव्यों में स्वर संगीत के लिए कई संदर्भ हैं. कालिदास द्वारा रचित  विक्रमोर्यसिया  के चौथे अधिनियम में  द्विपदिका , जम्भालिका ,  खान्दधरा , कार्कार्ज , खंडाका , आदि जैसे विभिन्न अक्सिप्तिका  संगीत रचनाओं इस्तेमाल किया गया है 

यह  तथ्य वो तथ्य हैं जिन्हें संसार किसी न किसी रूप में मान्यता देता है. परन्तु हमारे वेद और धर्मग्रन्थ ऐसे ज्ञान से भरे पड़े हैं की हम आज तक उनका मूल्य ही न जान सके. बरसों की गुलामी ने हमारे धर्मग्रंथों को  मात्र महाकाव्य बना दिया. बात चाहे विमान की हों या अग्नि अस्त्र की हमारे धर्मग्रंथ ऐसी ही बातों से भरे पड़े हैं. चाहे पुष्पक विमान काल्पनिक हों, चाहे  राम  द्वारा  अग्नि बाण का संधान काल्पनिक हों पर एक बात तो हमें यह मानने पर विवश करती है की  पोराणिक हिन्दुओं की कल्पनाशीलता इतनी तो थी जिसे बाद के वैज्ञानिकों ने सच कर दिखाया.  . भारत ने गीता के रूप में संसार को जीवन सूत्र दिया. चाणक्य और विदुर द्वारा दिया गया नीतिशास्त्र किसी भी परिचय का मोहताज नहीं है. आधुनिक राजनीती विज्ञान चाणक्य और विदुर द्वारा प्रतिपादित किये गए सिद्धान्तों पर ही आधारित है. इसी प्रकार आधुनिक अर्थशास्त्र चाणक्य द्वारा लिखे गए अर्थशास्त्र पर आधारित और प्रेरित है. आधुनिक antibiotic दवाएं आयुर्वेद के रस शास्त्र से ही प्रेरित हैं. अंकगणितीय आपरेशनों जैसे  घटाव, गुणन, भिन्न, वर्ग, cubes और वर्गमूल आदि का  नारद विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है.
पोराणिक भारतियों की उपलब्धिओं को इक फेहरिस्त में शामिल करना लगभग असम्भव है.बरसों की गुलामी ने हमें हमारी प्राप्तियां सहेजने का मौका ही नहीं दिया. कई प्राप्तियों को घुसपैठियों  ने प्रदूषित कर दिया.कुछ दिन पहले एक समाचारपत्र में पढ़ा के अमेरिका १५० योग आसनों का पेटेंट करवानेजा रहा है. सभी को यह बात ज्ञात है के योग का सूत्र भारत के मह्रिषी पतंजलि के देन है. कभी अमेरिका हल्दी का पेटेंट करवाता है कभी तुलसी  का. हम तभी जागते हैं जब पानी के नाक के पास बहने लगता है. अब इसे राजनेताओं की असफलता कहें या हमारी , की हमारी विद्या जो की ५००० साल पुरानी है उसका श्रेय कोई ऐसी सभ्यता ले जाए जिसे पैदा हुए ५०० साल भी नहीं हुए, भारतियों के लिए शर्म की बात है. गलती हमारी है और इस गलती का फायदा दूसरे उठाते हैं. हम पश्चिमी संभ्यता के रंग में इतने रंगे है की हमें सावन के अंधे की तरह सब कुछ हरा दिखाई दे रहा है. हम योग को नहीं जान पाए लेकिन जब योग पश्चिम जा कर योगा हों कर वापिस आया तो हमें उसकी महानता का एहसास हुआ. हम रामायण को तब तक न समझ पाए जब तक की वो रामायणा हों कर पश्चिम से वापिस नहीं आया. स्वामी विवेकानंद की प्रतिभा तब तक छुपी रही जब तक अमेरिका वालों ने उन्हें स्वामी विवेकानंदा नहीं कहा. कुछ ऐसा ही हश्र हमने ओशो के साथ किया. ऐसा कई नाम इतिहास के गर्त में छुप गए जिन्हें पश्चिम जाने का मौका नहीं मिला. अगर कोई डॉक्टर भारत से अमेरिका जाता है तो उससे कई तरह के टेस्ट देने के लिए कहा जाता है जिसका साफ़ मतलब है की उन्हें हमारी योग्यता पर रत्ती भर भी विश्वास नहीं लेकिन क्या ऐसा ही व्यव्हार अमेरिका से भारत आने वाले डॉक्टर के साथ किया जाता है या किया जा सकता है? हमें आज भी सफ़ेद चमड़ी देख कर कमतरी का एहसास होता है. डॉ हरगोबिन्द खुराना को नोबेल पुरुस्कार तब मिला जब उन्होंने अमेरिका जा कर अपना शोध किया. अगर किसी भारतीय मूल के आदमी को नोबेल मिलता है तो हमारे यहाँ दिवाली मनाई जाती है. क्यूँ ? जब वो काम कर रहा था तब हमने उसे मान्यता नहीं दी, जब वो भारत की नागरिकता छोड़ कर किसी और देश का नागरिक बन गया और पुरस्कार जीत लिया तो हमें याद आता है की यह तो हमारा ही भाई था. ऐसी कई बातों की लम्बी फेहरिस्त है, जिसे अगर यहाँ लिखा जाए तो मुझे शायद देशद्रोही कहना शुरू कर दिया जायेगा. प्रेमचंद की रंगभूमि के मुताबिक यह संसार सदियों से ऐसे ही चल रहा है और चलता रहेगा. और अगर आज के बाद कोई आपको यह कहे की भारत की विश्व को देन जीरो है तो गर्व से इस बात  को कहेइएगा "की हाँ, विश्व को भारत की देन जीरो है, क्यूंकि जीरो के बिना गिनती पूरी नहीं होती".
जय हिंद 
और जाते जाते इकबाल के शब्दों में 
वतन की फ़िक्र कर नादां मुसीबत आने वाली है,
तुम्हारी बरबादियों के चर्चे हैं आसमानों में,
अब न समझोगे तो मिट जाओगे ऐ हिन्दुस्तां वालो,
तुम्हारी दास्ताँ भी न होगी दास्तानों में