Sunday, April 8, 2012

जज़्बात हैं भिखारन कि रिदा ओढ़े हुए

वफ़ा न-आशना लोगों कि निगरानी में है

जब तडपते रहना ही है मुकद्दर तेरा

तू क्या सोच कर इतनी पशेमानी में है

कब तक सुलगते सन्नाटों का अलाव तापोगे

कब तक इस रात को बालिश्तों से नापोगे 

ये रात ढलती है, ढली है न ढलेगी कभी

ऐसे मंज़र में अपने ही साये से कांपोगे

वो तस्सवुर ही भला  क्या जो उसे याद नहीं

वो सरगिराँ है मगर क्यूँ  नाशाद नहीं

वो ग़मज़दा होने का उलाहना देता है तुझे

और तू मुस्कुराये ये तेरी अभी औकात नहीं 
 


जज़्बात हैं भिखारन कि रिदा ओढ़े हुए
वफ़ा न-आशना लोगों कि निगरानी में है
जब तडपते रहना ही है मुकद्दर तेरा
तू क्या सोच कर इतनी पशेमानी में है

कब तक सुलगते सन्नाटों का अलाव तापोगे
कब तक इस रात को बालिश्तों से नापोगे 
ये रात ढलती है, ढली है न ढलेगी कभी
ऐसे मंज़र में अपने ही साये से कांपोगे

वो तस्सवुर ही क्या जो उसे याद नहीं
वो सरगिराँ है मगर नाशाद नहीं
वो ग़मज़दा होने का उलाहना देता है तुझे
और तू मुस्कुराये ये तेरी अभी औकात नहीं 

'हामिला'

सुबह दम ही हार के बैठ जाता है

ज़र्द कमज़ोर होंठो में

बुदबुदाता रहता है

न जानेक्या क्या कुछ

पकड़ा दूं तो गिरा देता है

कांपते हाथों से 

दिन भर के चुगे हुए

लम्हे 

ज़रा भींच लूं 

और लगा लूं गले से

तस्सल्ली के लिए

तोऔर बढा जाता है दर्द मेरा 

वक़्त भी शायद 'हामिला' है इन  दिनों 

हामिला: प्रेग्नेंट , गर्भवती