Thursday, October 14, 2010

हो सकता है हिजरत के उन पलों में
पाँव पड़ जाये किसी सुलगती याद पर
 आवाज़ दें  तुमेह कुछ सायेदार लम्हें 
और खींच ले किसी एहसास की ठंडक 

हो सकता है  कुछ दिन निकल जायें 
ज़हन औ दिल की कशमकश में
और कलम की नोक बना दे 
एक गहरा निशान पेशानी पर

यूँ भी  हो सकता है 
खाने में कंकर का पता न लगे
और लड़ी ख़यालात की  टूटे
एक चटाख की आवाज़ के साथ

हो सकता है तीखी लगे कुछ देर 
सर्दियों की नरम धूप
और बदल ले कायनात अपनी फितरत
कुछ दिनों के लिए 

उचटती सी  नज़र डाल कर आगे बढ़ जाना
कुछ एहतमाम ज़रूरी होते हैं सफ़र के लिए 
हिजरतें कब आसान होती हैं 


2 comments:

  1. hi , varun this is vishal.... i have not been able to read all your works ...... but the first one along with the one u wrote for ur daughter stumped me completely over ... amazing usage of words ! simple ..one can relate to ... chatakh ki awaaz aati hai ... keep it on .... buddy

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