Tuesday, October 5, 2010

सदियों से चल रहा है ये 


दीवाने 'मीर' हैं  'लब ऐ नाज़ुक' के 
'ज़ौक' को रोकती हैं  कभी 'दिल्ली' की गलियां 
खींच लेता है कभी 'संग ऐ आस्तां' ग़ालिब को
हाथ 'मोमिन' का भी  जुदा नहीं होता
जा बैठते हैं आज भी 'गुलज़ार'
चाय खाने में ' मंटो' के साथ,
और उलझ जाते हैं 'बद्र' जाफरानी पुलोवर में,
'निदा' को भी तो इंतज़ार  है सांवली लड़की के गुजरने का ,
'मुन्नवर' के जज़्बात जागते हैं 'माँ' के आगे  
'आदतें' 'दुष्यंत' की भी तो नहीं जातीं


हम सब फितरतन ही ऐसे हैं
यूँ बेजा शिकायत न किया करो मुझसे 


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