Thursday, December 23, 2010

'सोना'....................गुलज़ार

कभी कभी लगता है की ज़िन्दगी के मुख्तलिफ मरहलों के तजुर्बों को पहले ग़ालिब और फिर गुलज़ार साहब ने बहुत बारीकी से महसूस किया और फिर लफ़्ज़ों में पिरोया है. यह मेरा एक ज़ाती ख्याल भी हो सकता है लेकिन कभी भी कैसा भी मूड हो, उस मोजूं पर कोई ग़ज़ल या नज़्म आपको अपनी सी लगती है. ऐसी ही एक नज़्म आपकी नजर कर रहा हूँ, जिसमें गुलज़ार साहब ने फिर अपने लफ़्ज़ों के जादू को जगाया है..............

ज़रा आवाज़ का लहजा तो बदलो................

ज़रा मद्धिम करो इस आंच को 'सोना'

कि जल जाते हैं कंगुरे नर्म रिश्तों के !

ज़रा अलफ़ाज़ के नाख़ुन तराशो ,

बहुत चुभते हैं जब नाराज़गी से बात करती हो !!

3 comments:

  1. गुलज़ार साहब की अच्छी रचना पढवाने के लिए आभार

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  2. न रक्खो बचा के
    ज़हन में इक शिकायत सी
    उन चुंधियाती रौशनियों के लिए
    वहाँ जलता...
    वो पीला-सा बल्ब
    मद्धम लगने लगता है

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