Tuesday, December 21, 2010

अधूरी आरज़ू

हर शाम एक अधूरी सी आरज़ू 
खेलती  रहती है पलकों पर 
और बीनती रहती है चंद ताज़ा मोती
छुपा लेता हूँ पलकों को उंगलीओं से
कभी आस्तीन से 
कहीं चुन्धियाँ न जायें
काएनात की आँखें 
और सोख ले
आस्तीन वो ताज़ा मोती
और.... चाहता हूँ
वो आरज़ू

यूँ ही पलकों पे हर शाम खेलती रहे 
यूँ ही ताज़ा मोतीओं से बहलती रहे 




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