लाखों लम्हों का वो मुख़्तसर सा दिन बिता कर
जब हम उस भीगे दिन की गोद से निकले थे
तब वो भी सिंधूरी रंग की चुनरी पहने
हमारे साथ ही निकली थी
बार बार आँखों से
और कभी छेड़ देती
हलकी चिकोटी से
तुम भी तो शर्माए बिना न रहते
उसकी हर शरारत पे
याद है बाँध लीं थीं
उसने एक बार उँगलियाँ तुम्हारी
और
तुम न जाने क्यूँ
किसी मुसलसल सोच में गुम
चुपचाप से
छुड़ा कर हाथ
मुड गए अगले मोड़ पर
और
वो ठिठकी सहमी सी
सुरमई रंग की चादर ओढ़े
चूमती रही तुम्हारे क़दमों को
तुमने भी कभी उसका चर्चा नहीं छेड़ा
मैं भी वो शाम उसी मोड़ पे छोड़ आया था
आपकी पोस्ट कल(3-7-11) यहाँ भी होगी
ReplyDeleteनयी-पुरानी हलचल
बहुत खूब ..अच्छी प्रस्तुति
ReplyDeletebehad khoobsurat rachna hai.
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है सर!
ReplyDeleteसादर
Bahut Khoooooooob.................!!!
ReplyDeleteबहुत बढ़िया लिखा है|बहुत खूब...
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