ILHAAM IS A WORD OF URDU ' WHICH MEANS GIFTED FROM ABOVE'. THIS BLOG CONTAINS THE ARTICLES DEALING WITH PROBLEMS OF COMMON MAN OF INDIA. I AM NOT A WRITER. EVERYTHING WRITTEN IN THIS BLOG IS AN 'ILHAAM' AND I THINK SOME ONE DESCENDS FROM ABOVE AND CONTROLS MY FINGERS AND PEN.
Friday, August 7, 2009
क्या करें भाई साहब ...........टाइम नही मिलता
"कहाँ रहते हैं सर, मिलते ही नहीं आज कल"।
"क्या करूँ भाई साहब टाइम नही मिलता, बहुत बिजी हूँ इन दिनों।"
येही जुमले आज कल आप को हर जगह उछलते दिखाई देते हैं। टाइम पता नहीं कहाँ चला गया। आज से बीस साल पहले किसी को मिलना होता था तो साइकिल उठा कर घर से जाते थे। दस मिनट उसके घर तक पहुचने के , दस मिनट उसके घरवालों से बात करने में और बाकि के दस मिनट वापिस आने में लगते थे बशर्त के वोह घर पर न मिले। अगर मिल गया तो अल्लाह जाने कितना टाइम लगता था। और आज आधे मिनट में मोबाइल पर बात हो जाती हैं। अगर गणित की गणना करें तो मुझे बतायिए की वोह बाकि के साढे उनतीस मिनट कहाँ गए। टाइम बच गया पर फिर भी टाइम नही है। मोहल्ले में एक साँझा चबूतरा होता था, रात के खाने के बाद कितनी देर बैठेंगे , किसी को नही पता था। आज वोही चबूतरा हमारा इंतज़ार करता है। पर हम भी एक उचटती सी एक नजर दाल के आगे चले जाते हैं। पड़ोस की चाची, मौसी और बुआ के हाथ की लस्सी और चाय पिए कितना अरसा बीत गया कभी हिसाब भी नही रखा। कब पड़ोस के छोटे बच्चे को टॉफी ले कर कंधे पे बिठा के सारी गली घुमाई थी। यह भी तो याद नही। क्यूंकि भाई साब टाइम नही है। यार , अगर टाइम नही मिलता तो क्यूँ दूरदर्शन पर ख़बर नही करते. किसी को मिल गया तो नईं कोतवाली दरयागंज, दिल्ली में बता जाएगा। आप जा के ले आईएगा. टाइम तो निकालना पड़ता है भाई। टाइम निकालिए, खुशियाँ पाईए । याद है जब मोहल्ले में एक ही टीवी होता था, और विक्रम बेताल , दादा दादी की कहानियाँ और इतवार की फ़िल्म देखने सारा मोहल्ला एक जगह मिलता था पर आज कल टाइम नही मिलता भाई साहब। क्यूंकि आज कल हमारे पास अपना अपना एल सी डी है। बकौल मुन्नवर राणा साहब
गुफ्तगू फ़ोन पर हो जाती है राणा साहब
अब किसी दीवार पर कबूतर नहीं फेंका जाता
Wednesday, August 5, 2009
क्या आप भी कांवड़ ले जाना चाहते हैं
श्रावण मॉस शुरू होते ही आप को सब और एक ही रंग नज़र आता है , भगवा रंग। हर और ताड़क बम , बोल बम और हर हर महादेव के जयकारों की आवाज़ सुनाईदेती है। यह हैं हमारे कांवड़इए भाई जो बहुत दूर दूर से चल कर अपने नजदीकी धरम स्थान पर पहुँचते हैं जहाँ गंगा मैया बहती हैं। वहां की हर सड़क , हर चौराहा और हर धरमशाला इन के कब्जे में ही होती है। इन की एक खास पहचान है के इन्होने भगवे रंग के कपड़े पहने होते हैं ज़यादातर बरमूडा या निकर जिस पर एक और ब्रांड का नाम जैसे के आदिदास या नीके लिखा होता है और दूसरी और बोल बम जैसे जयकारे। यह एक लाइन में सड़क के बीचों बीच चलते हैं चाहे वोह कोई आम शहर की सड़क हो या नेशनल हाईवे। कुछ कहिये तो यह जान से मारने से भी नही हिचकेंगे। यह रोटी तो लंगर से खाते हैं पर नशा करने के लिए इनके पास काफ़ी पैसा होता है। आईपॉड पर गाने सुनते सुनते यह सड़क पर किसी हार्न या ट्रैफिक सिग्नल की परवाह न करते हुए कई किलोमीटर लंबा जाम लगा देते हैं। अगर यह कहीं खरीदारी करने चले जाएँ तो समझो की उस दूकानदार की तो शामत आ गई। उसकी दूकान में कुछ भी अनहोनी घटना हो सकती है। सड़कों पर चलते हुए यह किसी भी लड़की नही छोडेंगे। यानि की आप अपने परिवार के साथ इनके पास से भी गुज़रना नही चाहेंगे। यह लेख किसी की धार्मिक भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने का कोई मकसद नही रखता और न ही इसमें लिखे गए विचार हर कांवड़ वाले पर लागू होते हैं। यह एक विवरण है जैसा की हर साल हर और दिखाई देता है। अगर देखा जाए तो इन में आप को कुपोषित युवा वर्ग मिलेगा जो किसी न किसी बहाने से घर से निकलना चाहता है। ताकि वोह आराम से घर से बाहर रह कर कुछ दिन के लिए बिना रोक टोक के नशा कर सके। भक्ति की कोई सीमा नही होती और न ही उसका कोई ढंग। पर सरकार कोई चाहिए की हर बार होने वाले इस उत्पात से जनता को रहत दिलाये पर सरकार अपने पर जिम्मेदारी नही लेना चाहेगी क्यूँ की यह भी एक वोट बैंक है। अगर यह वोट बैंक की राजनीती न होती तो हम शायद कहीं और होते क्यूंकि अगर देखा जाए तो पूरे भारतवर्ष में अंदाज़न एक करोड़ आदमी कांवड़ ले के जाते हैं और अगर यह युवा वर्ग को कोई काम दिया जाए तो तरकी के साथ साथ अपराध के बड़ते ग्राफ पर भी लगाम लगेगी।
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